12/7/11

सोशल नेटवर्किंग पर नजर

राजेश्वर राजभर : सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने सोशल मीडिया जगत की दिग्गज कंपनियों गूगल तथा फेसबुक समेत कई वेबसाइटों को कथित तौर पर निर्देश दिया है कि वे 'इस्तेमाल करने वालों की विषय सामग्री पर नजर रखें' और देखें कि कहीं कोई अपमानजनक अथवा आपत्तिजनक सामग्री तो प्रकाशित/ प्रसारित नहीं की जा रही है। आश्चर्य की बात नहीं कि इसकी वजह से ऑनलाइन जगत में तूफान सा आ गया। इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले इसे एक ऐसी जगह के रूप में देखते हैं जहां अभिव्यक्ति की आजादी पर कोई अंकुश नहीं है। सरकार और सत्ताधारी दल भी अपने रुख पर अडिग हैं और लगातार जोर दे रहे हैं कि कांग्रेस के अलावा कोई दूसरा राजनीतिक दल पारदर्शिता, खुलेपन और अभिव्यक्ति की आजादी में इतनी आस्था नहीं रखता। ऐसा प्रतीत होता है कि यह कदम मुख्यरूप से एक तरह के भय के कारण उठाया गया है क्योंकि ज्यादातर कांग्रेस के नेताओं को ही आपत्तिजनक सामग्री में निशाना बनाया गया था। इसमें कोई संदेह नहीं कि जिन अराजक लेकिन काल्पनिक लोकाचारों के साथ इंटरनेट की शुरुआत हुई थी, अपने विस्फोटक विकास के क्रम में वह उसे बरकरार नहीं रख सका। ऑनलाइन सामग्री सबके लिए सुलभ है और इसमें ऐसी मिथ्या और अपमानजनक बातें प्रकाशित होती हैं जो किसी दूसरे माध्यम में आएं तो उनपर समुचित दंड लगाया जा सकता है। इस बात के पीछे एक तार्किक वजह है कि आखिर क्यों इंटरनेट पर की गई अभिव्यक्ति को टेलीविजन अथवा प्रिंट मीडिया में की गई अभिव्यक्ति से अलग करके देखा जाए। इस विविधता वाले विकेंद्रित माध्यम पर नियंत्रण कर पाना खासा कठिन काम है। यही वजह है कि सरकार ने लगातार प्रयास किया है कि ऐसे नियंत्रण का बोझ तथा निगरानी का काम सेवा प्रदाताओं और फेसबुक, याहू तथा गूगल जैसी होस्ट वेबसाइटों पर छोड़ दिया जाए। ये कंपनियां खुद को दूरसंचार सेवा प्रदाताओं के रूप में देखना चाहेंगी जो खुद को किसी संचार के बीच बांटी गई भड़काऊ सूचना के लिए जिम्मेदार नहीं मानते जबकि सरकार उनको प्रकाशक मानती है जो उनके द्वारा सार्वजनिक की जा रही जानकारी की हर पंक्ति की निगरानी कर सके। वर्ष की शुरुआत में जब सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2008 के नए प्रावधानों को अधिसूचित किया गया तो यह स्पष्ट हो गया था कि कुछ न कुछ टकराव पैदा होगा। इनके तहत जिन प्रतिबंधों की व्यवस्था की गई है वे न्यायिक परीक्षण अथवा विधायी व्याख्या से उभरे हैं। उनका कार्यपालिका से कोई लेना देना नहीं है। वेबसाइटों से यह सुनिश्चित करने को कहा गया कि वे उपयोगकर्ताओं के लिए कड़े नियम बनाएं और प्रकाशित करें तथा किसी सूचना को हटाने की मांग पर 36 घंटे के अंदर कार्रवाई करें। गूगल और फेसबुक दोनों ने वक्तव्य जारी करके कहा है कि उन्होंने कानून के शब्दार्थ और उसकी मूल भावना दोनों का पालन किया है लेकिन सरकार अब इससे भी आगे जाना चाहती है। उसे अपने संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी राज्यमंत्री की बात सुननी चाहिए जिन्होंने गत सप्ताह लोक सभा में कहा था कि इन साइटों का इस्तेमाल बड़ी संख्या में लोग करते हैं और इन पर लाखों पन्ने हैं जिन पर नजर रखना व्यावहारिक नहीं है। जो भी हो, आपत्तिजनक सामग्री की पूर्व निगरानी अस्वीकार्य सेंसरशिप की तरह है। साथ ही इंटरनेट भी अभिव्यक्ति के किसी अन्य माध्यम से अलग नहीं है। उसे भी उतनी ही आजादी होनी चाहिए और मानहानि अपमान के मामलों में उसी तरह के प्रतिबंधों का सामना करना चाहिए। सरकार को उसी हद तक कानून लागू करने चाहिए जितने कि व्यावहारिक हों। उसे इसमें पारदर्शी तरीका अपनाना चाहिए।


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